Wednesday 24 September 2014

।। दृग्दृश्य विवेकः ।। ।। দৃগ্দৃশ্য বিবেক ।। ( Bengali Translation of Drigdrishya Viveka )


।। ॐ परमात्मने नमः।।
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।। दृग्दृश्य विवेकः ।।
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रुपं दृश्यं लोचनं दृक् तद्-दृश्यं दृक्तु मानसं।
दृश्याधीवृत्तयस्साक्षी दृगेव न तु दृश्यते।।1।।
नीलपीतस्थूलसूक्ष्मह्नस्वदीर्घादि भेदतः।
नानाविधानि रुपाणि पश्येल्लोचनमेकधा।।2।।
आन्ध्यमान्ध्पटुत्वेषु नेत्रधर्मेषु चैकधा।
संकल्पयेन्मनः श्रोत्रत्वगादौ योज्यतामिदम्।।3।। 
कामः संकल्पसंदेहौ श्रद्धाश्रद्धे धृतीतरे।
ह्नीर्धीर्भीरित्येवमादीन् भासयेत्येकधा चितिः।।4।। 
नोदेति नास्तमेत्येषा न वृर्द्धि याति न क्षयम्।
स्वयं विभात्यथान्यानि भासयेत्साधनं विना।।5।। 
चिच्छायावेशतो बुद्धौ भानं धीस्तु द्विधा स्धिता।
एकाहंकृतिरन्या स्यादंतःकरणरुपिणि।।6।।
छायाहंकारयोरैक्यं तप्तायःपिंडवन्मतं।
तदहंकारतादात्म्याद्देह श्र्चेतनतामगात्।।7।।
अहंकारस्य तादात्म्यं चिच्छायादेहसाक्षिमिः।
सहजं कर्मजं भ्रान्तिजन्यं च त्रिविधं क्रमात्।।8।।
संबंधिनोस्सतोर्नास्ति निवृत्तिस्सहजस्य तु।
कर्मक्षयात् प्रबोधात्र्च निवर्तेते क्रमादुभे।।9।।
अहंकारलये सुप्तौ भवेद्देहोउप्यचेतनः।
अहंकार विकासार्धंस्वप्नस्सर्वस्तु जागरः।।10।।
अंतःकरणवृत्तिश्र्च चितिच्छायैक्यमागता।
वासनाः कल्पयेत्स्वप्नेबोधेउक्षैर्विषयान्बहिः।।11।।
मनेउहंकृत्युपादानं लिंगमेकं जडात्मकं।
अवस्थात्रयमन्वेति जायते म्रियते तथा।।12।।
शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृतिरुपकं।
विक्षेपशक्तिर्लिगादि ब्राह्माण्डांतं जगत्सृजेत्।।13।।
सृष्टिर्नाम ब्रह्मरुपे सच्चिदानांदवस्तुनि।
अब्धौ फेनादिवत्सर्वनामरुपप्रसारणा।।14।।
अंतर्दृगदृश्ययोर्भेदं बहिश्र्च ब्रह्मसर्गयोः।
आवृणोत्यपरा शक्तिस्सा संसारस्य कारणम्।।15।।
साक्षिणः पुरतो भाति लिंगं देहेन संयुतम्।
चितिच्छाया समावेशाज्जींवस्स्याद्वयावहारिकः ।।16।।
अस्य जीवत्वमारोपात्साक्षिण्यप्यवभासते।
आवृतौ तु विनष्टायां भेदे भातेय्पयाति तत्।।17।।
तथा सर्गब्रह्मणोश्र्च भेदमावृत्य तिष्ठति।
या शक्तिस्तद्वशाद्बह्म विकृतत्वेन भासते।।18।। 
अत्राप्यावृतिनाशेन बिभाति ब्रह्मसर्गयोः।
भेदस्तयोर्विकारस्स्यात्सर्गोन ब्राह्मणि क्कचित्।।19।।
मुख्य पृष्ट पर जाने हेतु यहाँ दबाएँअस्ति भाति प्रियं रुपं नामचेत्यंशपच्त्रकम्।
आध्यत्रयं ब्रह्मरुपं जगद्रूपं ततो द्वयम्।।20।।
खवायवग्निजलोर्वीषु दोवतिर्यड़नरादिषु।
अभिन्नास्सच्चिदानंदाः भिधेते रुपानामनी।।21।। 
उपेक्ष्य नामरुपे द्वे सच्चिदानंदतत्परः।
समार्धि सर्वदा कुर्यादूहृदये वाय्थवा बहिः।।22।। 
सविकल्पो निर्विकल्पः समाधिर्द्वविधो हृदि।
दृश्यशब्दानुवेधेन सविकल्पः पुनर्द्विधा।।23।।
कामध्हाश्र्चित्तगा दृश्यास्तत्साक्षित्वेन चेतनम्।
ध्यायेदूदृश्यानुविद्धोह्ययं समाधिस्सविकल्ककः ।।24।। 
असंगस्सच्चिदानंदस्स्वप्रभो द्वैतवर्जितः।
अस्मीति शब्दविद्धोउयं समाधिस्सविकलपकः।।25।।
स्वानुभूतिरसावेशादू दृश्यशब्दावुपेक्ष्यतु।
निर्विकल्पस्समाधिस्स्यान्निवातास्थितदीपवत्।।26।। 
हृदीव बाह्मदेशेउपि यस्मिन्कर्स्मिश्र्च वस्तुनि।
समाधिराद्यस्सन्मात्रान्नामरुपपृथक्कृतिः।।27।।
अखंडैकरसं वस्तु सच्चिदानन्दलक्षणम्।
इत्यविच्छिन्नर्चितेयं समाधिर्मध्यमो भवेत्।।28।। 
स्तब्धीभावो रसास्वादात्तृतीयः पूर्ववन्मतः।
एतैस्समाधिभिष्षडूभिर्नयोत्कालं निरंतरम्।।29।। 
देहाभिमाने गळिते विज्ञाते परमात्मनि।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः।।30।। 
भिद्यते हृदयग्रंथिः छिद्यंते सर्वसंशयाः।
क्षीयंते चास्यकर्माणि तस्मिन्दृष्टो परावरे ।।31।। 

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কত জ্ঞানবান- কত পুঁথি লিখে গেছে,,
জেনো, দ্রষ্টা শুদ্ধবিবেকে তব অজান্তে ধরা আছে !!

শিশুর প্রতিটি জানার জান্তা তার মা যেমনি হয় ,,
শিশুকালে নিজ অজান্তেই শিশু পায় সেই পরিচয়,,

সবার  গভীরে সে শক্তি আছে ,
চেতন-প্রদূষণ-ই দ্বৈত !!
যেমনি মায়ের সব সন্তান এক ,
মা নিজেই যে অদ্বৈত !!

হোক সে বোধি, হও বোধা-তীত ,
বুদ্ধি হোক শুদ্ধ - মুক্ত ,,
সে পলে বুঝিবে জ্ঞানেরও জ্ঞানী -কে ,
হবে অদ্বৈতে বুদ্ধ  ...... !!  

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ব্রহ্ম সত্য জগত মিথ্যা ইহাই শ্রুতি কয় ,
এক সে ব্রাহ্মন অদ্বৈত তাহা তো অজানা নয় !!

তবু যে কেন প্রপঞ্চ জগৎ মোদের কাছে স্পষ্ট ,
ব্রহ্মে কেন দেখিনা কেন তিনি রহেন অস্পষ্ট ?

উন্নত সাধকের এ প্রশ্ন অবশ্য আসিবে মনে ,
কেন অদ্বৈত থাকেন অধরা আমাদের মননে ??

আত্ম আর ব্রহ্ম দুইই- এক বৈ তো নয় ,
ঢেকে রাখে 'অবিদ্যা' তারে ; যা আত্মার-ই  অংশ হয় !!

আত্মার মতই যার নেইকো কোনো শুরু ,
এও যে এক মায়া বলে গেছে রমন -গুরু !!

ছায়াছবি পর্দায়  আঁধারে আলো ফেললেই  ভাসে  ,
ব্রহ্ম তেমন পরম-অনুভবেই আসে !!

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দেখছে যে চোখ , হচ্ছে সে 'দৃক' , যা দেখি তাই 'দৃশ্য ' ,
আবার চোখ কে দেখে মন যখন - চক্ষু  সেথায়  দৃশ্য ' || 

আবার এ মন আর মনের ভাবনাগুলি ' আত্মা' মোদের দেখে ,,
সে আত্মা দৃশ্য তো নয় - ' দৃক' কহি মোরা যাকে || 

নীল-পিত্ত ,স্থুল -সুক্ষ্ম, লম্বা কিম্বা খাটো,,এ সবই সেই চক্ষু দেখে - যা এক থাকে অবিরত ||

আবার সে চোখের বৈশিষ্ট তিখ্নতা কিম্বা অন্ধত্ব বা তা অনুজ্বল ,,
এ সবই মনে অনুভূত -যে মন সেসাথে  এক, আর অবিরল ||

আবার মনের যত প্রকৃতি , যেমন - ইচ্ছা , প্রত্যয়, সংশয় ,,
বিশ্বাস বা তার চাহিদা , কিম্বা লজ্জা -ভয়.....

ভেদাভেদ বা ভালো মন্দ সবই চেতনাতে অনুভূত ,
বিবেক বা চেতন , আত্মা -শুদ্ধ সনাতন ,না হয় উদিত অস্তমিত ||

স্বয়ংপ্রভ সেই  'আত্মা' বিনা অন্য  কোনো সাধনে ,
স্বপ্রকাশিত - সবে প্রকাশিত করে- বিনা কোনো উপকরণে ||

বুদ্ধি - যা অভ্যন্তরীয় অঙ্গের সমষ্ঠি,,  
তার  প্রতিবিম্বিত চৈতন্যের  দ্বিবিধ  -প্রকৃতি !!

এই দৃষ্টিকোনীয় দ্বি-প্রকৃতির 'অহংবোধ ' প্রথম ,
দ্বিতীয়টিকেই কহি মোরা আমাদের 'মন ' ||

এই 'বুদ্ধি' -র যোগ সেই প্রতিবিম্বিত চৈতন্যের সাথে ,,
তুলনা যেমনে আগুন আর উত্তপ্ত-অগ্নিভ- লৌহ-গোলকেতে ||

স্থুলদেহ জোড়া আছে এই চেতনসত্তা সঙ্গে ,,
আবার অহং আর প্রতিবিম্বিত-চৈতন্য বিস্তৃত ত্রিবিধ অঙ্গে !!

চৈতন্য -শরীর -সাক্ষী , অহং এই ত্রি-অঙ্গ সাথে ,,
প্রথম সহজ , দ্বিতীয় কর্মজ , তৃতীয় ভ্রান্তি -ভাবেতে ||

যতক্ষণ না হয় আত্মদর্শন -বুদ্ধি ই বল হয় ,,
আত্মার আভাস হলেই পরে বুদ্ধির ও হয় লয় ||

তখন চেতনে আসে শুধু হওআ টুকুই সত্য ,,
সব পরোক্ষ সংযোগ কেটে আত্মা ই একপ্রত্যক্ষ ||

দ্বিতীয় দেহভাবে বহু -কর্মাভাস ভাসে , 
প্রবৃত্তি নাশ হলেই মনে কেবল এক সত্য আভাসে ||

গভীর নিদ্রাকালে চেতনসাথে অহংভাবের ও হয় লয় ,,
জাগ্রত চেতনে অহং পুর্ণপ্রকাশ পায় ||

মধ্যম স্থিতি যারে সপ্নাবস্থা কহি ,, 
আধো-অহংকার যেন এই স্থিতি তেই বহি ||

সপ্নাবস্থায় সুপ্ত-প্রবৃত্তি ভাবনা বয়ে আনে ,
এক সপ্নজগত তৈরী হয় মোদের মননে ||

সেই প্রবৃত্তি ই জাগরণে ইন্দ্রিয়ে হয় বিস্তৃত ,
জাগতিক দৃষ্টি মায়া আর অজ্ঞানতায় স্থিত ||

সুক্ষ -দেহ মন অহংকার দুইয়ের ই কারণ ,,
এভাবে ত্রিবিধ স্থিতির সৃজন -তত্সঙ্গে জনম আর মরণ ||

এবার যখন গুন এর ফেরে জগতটাকে দেখি ,,
মায়া হতেই রজ / তম এ দুই-এর সৃজন , একি !!

সুক্ষ্ম রাজস-বোধে স্থুল-জগত তৈরী হয় ,
বহুরূপে বহুনামে যে জগত প্রপঞ্চময় ||

সৎ-চিত্ত -আনন্দ সাগরে যেমন বুদবুদ ভাসে ,,
তেমনি অন্তরমধ্যে মায়ার জগত ভাসে ||

বহির্দৃষ্টির আবরণ ও এই মায়ার ই গড়া, সংসারের কারণ ও অন্তর্মনে-তা এ মায়ারই সৃষ্টি করা ||

চৈতন্যের প্রতিবিম্ব কেবল সাক্ষীভাবেই ভাসে ,
আবার সাক্ষীচেতন থাকে আচ্ছাদনে মায়াময় তামসে ||

অন্তর্মন অজ্ঞানতার আবরণে থাকে ঢাকা ,
সে আবরণ সরলেই চেতন কেবল শুদ্ধ -ফাঁকা ||

সে আবরণের কারণেই ব্রহ্মকে নাম আর রূপে দেখি ,
হৃদয়ালোকে যা ছিন্ন হলেই কেবল ব্রহ্মই দেখি ||

মায়া -ব্রহ্মের ভেদ হয় ,যখন কর্মজ জগত মেলায় ,
প্রপঞ্চ মেলালেই ব্রহ্মজ্ঞান প্রত্যক্ষ হয় || 

পঞ্চবৈশিষ্ঠের প্রথম ত্রয়ে কেবল ব্রহ্ম ভাসে ,,
সৎ-চিদ-আনন্দে এক ব্রহ্ম ই আভাসে ||

চতুর্থ পঞ্চমে কহি নাম আর রূপ ,,
এ দুটি ব্রহ্ম তো নয় ব্রহ্ম যে অরূপ ||

সৎ -চিদ -আনন্দ পঞ্চভূতে আছে ,,
ব্যোম -মরুত, অগ্নি -অপ,ক্ষিতি তে মিশে আছে ||

দেব পশু নর ব্রহ্মের ই অংশ বিশেষ ,
নাম আর রূপ কেবল জাগতিক দৈত  অশেষ ||

তাই নাম রূপ ছেড়ে হৃদয়ে সত -চিদ-আনন্দ ধরো ,
' অহম ব্রহ্মাস্মি ' - অন্তর্বাহিরে সদা অভ্যাস করো ||

এ সমাধি অভ্যাস ও নিম্নোক্ত দুই প্রকার যথা ,
সবিকল্প পরে নির্বিকল্প এই দুই তথা ||

সবিকল্পে ভিন্ন রহে জ্ঞাতা, জ্ঞান , জ্ঞাত ,,
নির্বিকল্পে তিন ই যেন একাকার অবিরত ||

আবার দুই প্রকারে সবিকল্প সমাধিভাব আসে ,,
প্রথম সাক্ষীভাবে বস্তুধারনায় মননে ব্রহ্ম আভাসে ||

আবার শব্দধারায় যখন সচিদানন্দ ফোটে,
সেটি ই সবিকল্পের দ্বিতীয় রূপ বটে ||

যখন বস্তু -শব্দ বোধ হয় মিলেমিশে এক আকার ,,
অকল্পনীয় পরমানন্দে সব ঘুলেমিলে এক একাকার ||

এ যেন ব্রহ্মসমুদ্রে আমি-টুকুর হাবুডুবু খাওয়া ,,
এক সময় সমস্ত ফাঁকা আমি - র মিলিয়ে যাওয়া ||

দ্বিপশিখাটি হাওয়া তে যেমনে হেলে-দোলে,,
নির্বিকল্পে নিষ্কম্প হয়ে যেমন জ্বলে ||

সবিকল্পের রূপ-শব্দ -সমাধির পারে ,
স্থির অচঞ্চল  সমুদ্রে আত্মা নিজেরে প্রকাশ করে ||

ধ্যানে এই ষষ্ঠ প্রকার সমাধি অভ্যাসে ,
পরমাত্মা দেহবোধের অতীত চেতনে ভাসে ||

তত্পরে মন যখন যথা তথাতেই সমাধি ,
সে সমাধি ভাঙ্গেনা আর চলে নিরবধি ||

পরমাত্মাকে জীবাত্মার এ সমাধিতেই অনুভব ,,
হৃদয়ের গাঁঠ খুলে -নিঃসন্দেহে -জীবন্মুক্ত স্বভাব ||

Tuesday 16 September 2014

(19) *Kobitay Chandogya Upanishad* (Part 3, ch 11-13)

॥ तृतीयॊऽध्यायः ॥
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॥ एकादशः खण्डः ॥
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अथ तत ऊर्ध्व उदेत्य नैवोदेता नास्तमेतैकल एव मध्ये स्थाता तदेष श्लोकः ॥ १ ॥
न वै तत्र न निम्लोच नोदियाय कदाचन । देवास्तेनाहँसत्येन मा विराधिषि ब्रह्मणेति ॥ २ ॥
न ह वा अस्मा उदेति न निम्लोचति सकृद्दिवा हैवास्मै भवति य एतामेवं ब्रह्मोपनिषदं वेद ॥ ३ ॥
तद्धैतद्ब्रह्मा प्रजापतय उवाच प्रजापतिर्मनवे मनुः प्रजाभ्यस्तद्धैतदुद्दालकायारुणये ज्येष्ठाय पुत्राय पिता ब्रह्म प्रोवाच ॥ ४ ॥
इदं वाव तज्ज्येष्ठाय पुत्राय पिता ब्रह्म प्रब्रूयात्प्रणाय्याय वान्तेवासिने ॥ ५ ॥
नान्यस्मै कस्मैचन यद्यप्यस्मा इमामद्भिः परिगृहीतां धनस्य पूर्णां दद्यादेतदेव ततो भूय इत्येतदेव ततो भूय इति ॥ ६ ॥

॥ द्वादशः खण्डः ॥
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गायत्री वा ईदँ सर्वं भूतं यदिदं किं च वाग्वै गायत्री वाग्वा इदँ सर्वं भूतं गायति च त्रायते च ॥ १ ॥
या वै सा गायत्रीयं वाव सा येयं पृथिव्यस्याँहीदँसर्वं भूतं प्रतिष्ठितमेतामेव नातिशीयते ॥ २ ॥
या वै सा पृथिवीयं वाव सा यदिदमस्मिन्पुरुषे शरीरमस्मिन्हीमे प्राणाः प्रतिष्ठिता एतदेव नातिशीयन्ते ॥ ३ ॥
यद्वै तत्पुरुषे शरीरमिदं वाव तद्यदिदमस्मिन्नन्तः पुरुषे हृदयमस्मिन्हीमे प्राणाः प्रतिष्ठिता एतदेव नातिशीयन्ते ॥ ४ ॥
सैषा चतुष्पदा षड्विधा गायत्री तदेतदृचाभ्यनूक्तम् ॥ ५ ॥
तावानस्य महिमा ततो ज्यायाँश्च पूरुषः । पादोऽस्य सर्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवीति ॥ ६ ॥
यद्वै तद्ब्रह्मेतीदं वाव तद्योयं बहिर्धा पुरुषादाकाशो यो वै स बहिर्धा पुरुषादाकाशः ॥ ७ ॥
अयं वाव स योऽयमन्तः पुरुष अकाशो यो वै सोऽन्तः पुरुष आकाशः ॥ ८ ॥
अयं वाव स योऽयमन्तर्हृदय आकाशस्तदेतत्पूर्णमप्रवर्ति पूर्णमप्रवर्तिनीँश्रियं लभते य एवं वेद ॥ ९ ॥

॥ त्रयोदशः खण्डः ॥
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तस्य ह वा एतस्य हृदयस्य पञ्च देवसुषयः स योऽस्य प्राङ्सुषिः स प्राणस्तच्चक्षुः स आदित्यस्तदेतत्तेजोऽन्नाद्यमित्युपासीत तेजस्व्यन्नादो भवति य एवं वेद ॥ १ ॥
अथ योऽस्य दक्षिणः सुषिः स व्यानस्तच्छ्रोत्रँस चन्द्रमास्तदेतच्छ्रीश्च यशश्चेत्युपासीत श्रीमान्यशस्वी भवति य एवं वेद ॥ २ ॥
अथ योऽस्य प्रत्यङ्सुषिः सोऽपानः सा वाक्सोऽग्निस्तदेतद्ब्रह्मवर्चसमन्नाद्यमित्युपासीत ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भवति य एवं वेद ॥ ३ ॥
अथ योऽस्योदङ्सुषिः स समानस्तन्मनः स पर्जन्यस्तदेतत्कीर्तिश्च व्युष्टिश्चेत्युपासीत कीर्तिमान्व्युष्टिमान्भवति य एवं वेद ॥ ४ ॥
अथ योऽस्योर्ध्वः सुषिः स उदानः स वायुः स आकाशस्तदेतदोजश्च महश्चेत्युपासीतौजस्वी महस्वान्भवति य एवं वेद ॥ ५ ॥
ते वा एते पञ्च ब्रह्मपुरुषाः स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपाः स य एतानेवं पञ्च ब्रह्मपुरुषान्स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपान्वेदास्य कुले वीरो जायते प्रतिपद्यते स्वर्गं लोकं य एतानेवं पञ्च ब्रह्मपुरुषान्स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपान्वेद ॥ ६ ॥
अथ यदतः परो दिवो ज्योतिर्दीप्यते विश्वतः पृष्ठेषु सर्वतः पृष्ठेष्वनुत्तमेषूत्तमेषु लोकेष्विदं वाव तद्यदिदमस्मिन्नन्तः पुरुषो ज्योतिस्तस्यैषा ॥ ७ ॥
तस्यैषा दृष्टिर्यत्रितदस्मिञ्छरीरे सँस्पर्शेनोष्णिमानं विजानाति तस्यैषा श्रुतिर्यत्रैतत्कर्णावपिगृह्य निनदमिव नदथुरिवाग्नेरिव ज्वलत उपशृणोति तदेतद्दृष्टं च श्रुतं चेत्युपासीत चक्षुष्यः श्रुतो भवति य एवं वेद य एवं वेद ॥ ८ ॥

|| তৃতীয় অধ্যায় ||
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|| একাদশ খন্ড ||
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সে লোকে যেথা সূর্যের না অস্ত হয় না উদয় ,
সেথা দিনমানে থাকেন যে তিনি সবসময় ||
ব্রহ্মলোকে সদাই তিনি রহেন বিদ্যমান ,
এই ব্রহ্মা-উপনিষদ , এই  ব্রহ্মজ্ঞান ||
এ মত ব্রহ্মের মত জানিয়া এ ব্রহ্মে ,
সদা যেন থাকি স্থির এ পরমব্রহ্মে ,,
যিনি জানিয়া এ ব্রহ্মজ্ঞান এঁরে ধরেন ধ্যানে ,,
তাঁর না উদয় না অস্ত - তিনি সদাই থাকেন এক -সমানে ||
এ জ্ঞান ব্রহ্মা প্রজাপতিরে দেন -
প্রজাপতি হতে মনু পান এ অনন্ত ,
মনু হতে তাঁর বংশধরগণ ,
উদ্দালক আরুনি পর্যন্ত !!
এ জ্ঞান পিতার দেয় তাঁর জেষ্ঠ সন্তানে,
কিম্বা সে শিষ্য যাহারে এ জ্ঞানের উপযুক্ত জানে !!
এ জ্ঞান অতি মূল্যবান অতুল ঐশ্বর্য হতে ,
সাগরসম ঐশ্বর্য -ও পারেনা এ জ্ঞানের দাম দিতে !!

|| দ্বাদশ খন্ড ||
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হেথা যত কিছু আছে সবই যে গায়ত্রী ,
'বাক '-যাহা করে গান ,তাহাও সে গায়ত্রী ||
যাহা  করে রক্ষা সবকিছুকে , তাও গায়ত্রী বৈ তো নয় ,,
'গায়তে', 'ত্রয়তে' ,জানিয়া পাই পরিচয় ||
গায়াত্রী -ধরিত্রী, যাতে ধরা আছে সবকিছু ,
এ ধরার উপরে তো নেইকো কোনকিছু ,,
আবার দেহ -ও গায়ত্রী যাতে প্রান থাকে ধরা ,
  উপরে দেহ বিনা  যায়্নাকো প্রান ধরা ||
আবার দেহমধ্যে এ গায়ত্রী হন যে হৃদয় ,
যাহার ভিতর ধরি প্রান ; প্রান তদুপরি অন্য কোথাও নাহি রয় ||

গায়ত্রী চতুষ্পদ-তার ছয়টি ভাঁজ তা 'ঋক'-এও বলা আছে ,,
ব্রাহ্মন সর্বোচ্চ সে মাহাত্ম গায়াত্রী -অক্ষরেই আছে !!
চতুষ্পদের প্রথম পদ সবের আচ্ছাদন  এ ধরা-য় ,,
বাকি তিন পদ স্বর্গেতে গায়ত্রীরূপেই স্থিত হয় ||

যাহার ব্রাহ্মন বলিয়া বর্ণন তাহাই বহিরাকাশ ,,
মনুষ্য দেহ ভিতরে তিনি ই  অভ্যান্তরাকাশ ||
আবার হৃদয়মধ্যে চিদাকাশ রূপে তাঁহাই সর্বব্যাপী ,,
অপরিবর্তনীয় এ হৃদয়াকাশ সর্বোচ্চ ব্রহ্মরুপী ||
এ জ্ঞানের জ্ঞাত-র সর্বপ্রকার শ্রীবৃদ্ধি হয় ,
একইভাবে বৈভব সদা পরিপূর্ণ রয় ||

|| ত্রয়োদশ খন্ড ||
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এই হৃদয়াকাশের পঞ্চদ্বার - যার রক্ষী পঞ্চদেব ,
পুর্বদ্বার-এর রক্ষক রুপি স্বযম সূর্যদেব ||
যাহারে আদিত্য কহি , এ পূর্বেই থাকে প্রান ,
অক্ষীমধ্যে সে আদিত্যে ধরি মোরা ধ্যান ||
যিনি এ জ্ঞানেতে জ্ঞাত - তিনি এ আদিত্যের বরে ,
পুর্বলোকের কৃপায় উজ্জ্বল , পরিপূর্ণ অন্নভান্ডার -এ ||

দক্ষিনদ্বার ব্যান /কর্ণ , দ্বাররক্ষক চন্দ্রমা,
এতে ধরি ধ্যান -পাবে বরদান ,
নামযশের রবেনা  সীমা ||
যে এ জ্ঞানে যশলক্ষ্মিরে ধরিয়াছে নিজ ধ্যানে,
শ্রীময়ে সম্পূর্ণ হয় সে যশ নাম ধন মানে ||

পশ্চিমদ্বার 'অপানা' তা 'বাক' তাই হলো 'অগ্নি '
তার উজ্জ্বলতা / ব্রাহ্মনে ধ্যান ধরিয়াছেন যিনি ,
তিনি স্বপ্রকাশে হন প্রকাশিত অন্ন-এর তিনি হন ভোক্তা,,
বহ্নিসমান তেজ তাঁর হয় - অগ্নি সে বরদাতা ||

উত্তরদ্বারী 'পারজন্য' সেই 'সমানা' সেই ই মন ,
কৃতিত্ব ,যশ , সৌন্দর্যের বৃষ্টিদেব ই সাধন ||
যে জানিয়া ইহা ধরে 'পারজন্য '- এ ধ্যান ,,
এ দ্বারের দেব তারে দেন যশস্বী সুন্দর হবার বরদান ||

উর্দ্ধদ্বার ' উদ্ডানা',  বায়ু আর সে -ই   আকাশ ;
মাহাত্ম /শক্তি, সফলতায় তাহার প্রকাশ ||
যে জানিয়া মরুত্শক্তি ধরেন এরে ধ্যানে ,,
বরদান পান তিনি সেই জ্ঞানে ||

এ স্বর্গের পঞ্চদ্বার আর ব্রাহ্মণের পঞ্চসেবকেরে জানিয়া ,
যিনি ধ্যানে ধরেন পাঁচে নিজ মন বাঁধিয়া,,
তিনি স্বর্গলাভ করেন আর তাঁর পরিবারে ,
জন্মায় বীরশিশু উদ্ধারিতে সবারে ||

এর ও উপরে এক লোক আছে যাহা জ্যোতির্ময় ,
সেই এক ই অব্যক্ত আলোক সকল মনুষ্যমদ্ধ্যে রয় ||
যাহা পাই শরীরে উত্তাপে স্পর্শ দিয়া ,
আবার শুনিতে পাই তারে কর্ণ বন্ধ করিয়া ||
আগুনের হুম হুম জাতীয় শব্দেতে,
পাই বন্ধ কানে মোরা তাহারে শুনিতে ||
এ লোক ব্রহ্মলোক যিনি এর জ্ঞানে জ্ঞানী ,,
জীবন উত্সব তাঁর তিনি ব্রহ্মজ্ঞানী ||

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Part Three
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Chapter XI : [ The Result of the Meditation on the Honey]
1. Now, after having risen thence upwards, it (i.e. the sun) rises and sets no more. It remains alone in the centre. And on this there is the following verse:
2. "There (i.e. in Brahmaloka) the sun neither rises nor sets at any time. O ye gods, if this is true, may I never fall from Brahman!"
3. Verily, for him who thus knows this Brahma—Upanishad, the sun does not rise or set. For him it is day for ever.
4. This doctrine Brahma told to Prajapati, Prajapati to Manu, Manu to his offspring. And to Uddalaka Aruni this doctrine of Brahman was narrated by his father.
5. A father may therefore tell that doctrine of Brahman to his eldest son to a worthy disciple.
6. It must not be told to anyone else, even if he should offer one the whole sea—girt earth, full of treasure; for this doctrine is worth more an that, yea, it is worth more.

Chapter XII [ Meditation on the Gayatri ]
1. The gayatri is everything, whatever here exists. Speech is verily the Gayatri, for speech sings forth (gaya—ti) and protects (traya—te) everything, whatever here exists.
2. That Gayatri is also the earth; for everything that exists here rests on this earth and does not go beyond.
3. In man, that Gayatri is also the body; for the pranas exist in this body and do not go beyond.
4. That body, in man, is again the heart within a man; for the pranas exist in it and do not go beyond.
5. That Gayatri has four feet and is sixfold. The same is also declared by a Rik—verse:
6. "Such is its greatness (i.e. of Brahman as known through the symbol of the Gayatri). Greater than it is the Person (Brahman). One of Its feet covers all beings; the immortal three feet are in heaven (i.e. in Itself)
7—9. The Brahman which has been thus described is the same as the physical akasa outside a person. The akasa which is outside a person is the same as that which is inside a person. The akasa which is inside a person is the akasa within the heart. The akasa which is within the heart is omnipresent and unchanging. He who knows this obtains full and unchanging prosperity.

Chapter XIII : [ Meditation on the Door-Keepers]
1. Of that heart there are five doors controlled by the devas. That which is the eastern door is the prana—that is the eye, that is Aditya (the sun). One should meditate on that as brightness and the source of food. He who knows this becomes bright and an eater of food.
2. That which is the southern gate is the vyana—that is the ear, that is Chandrama (the moon). One should meditate on that as prosperity and fame. He who knows this becomes prosperous and famous.
3. That which is the western gate is the apana—that is speech, that is Agni (fire). One should meditate on that as the radiance of Brahman and the source of food. He who knows this becomes radiant and an eater of food.
4. That which is the northern gate is the samana—that is the mind, that is Parjanya (the rain—god). One should meditate on that as fame and beauty. He who knows this becomes famous and beautiful.
5. That which is the upper gate is the udana—that is Vayu, that is the akasa. One should meditate on that as strength and greatness. He who knows this becomes strong and great.
6. These are the five servants of Brahman, the door—keepers of the world of heaven. He who thus knows these five servants of Brahman, the door—keepers of the world of heaven—in his family a hero is born. He who thus knows the five servants of Brahman, the door—keepers of the world of heaven, himself attains the world of heaven.
7—8. Now, the light which shines above this heaven, above all the worlds, above everything, in the highest worlds not excelled by any other worlds, that is the same light which is within man. There is this visible of this light: when we thus perceive by touch the warmth in the body. And of it we have this audible proof: when we thus hear, by covering the ears, what is like the rumbling of a carriage, or the bellowing of an ox, or the sound of a blazing fire. One should worship as Brahman that inner light which is seen and heard. He who knows becomes conspicuous and celebrated, yea, he becomes celebrated.

Sunday 14 September 2014

(18) *Kobitay Chandogya Upanishad* Tritio Adhyay, shosttho - dosom khondo

॥ तृतीयॊऽध्यायः ॥
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॥ षष्ठः खण्डः ॥
तद्यत्प्रथमममृतं तद्वसव उपजीवन्त्यग्निना मुखेन न वै देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यन्ति ॥ १ ॥
त एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति ॥ २ ॥
स य एतदेवममृतं वेद वसूनामेवैको भूत्वाग्निनैव मुखेनैतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यति स य एतदेव रूपमभिसंविशत्येतस्माद्रूपादुदेति ॥ ३ ॥
स यावदादित्यः पुरस्तादुदेता पश्चादस्तमेता वसूनामेव तावदाधिपत्यँस्वाराज्यं पर्येता ॥ ४ ॥
॥ सप्तमः खण्डः ॥
अथ यद्द्वितीयममृतं तद्रुद्रा उपजीवन्तीन्द्रेण मुखेन न वै देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यन्ति ॥ १ ॥
त एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति ॥ २ ॥
स य एतदेवममृतं वेद रुद्राणामेवैको भूत्वेन्द्रेणैव मुखेनैतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यति स एतदेव रूपमभिसंविशत्येतस्माद्रूपादुदेति ॥ ३ ॥
स यावदादित्यः पुरस्तादुदेता पश्चादस्तमेता द्विस्तावद्दक्षिणत उदेतोत्तरतोऽस्तमेता रुद्राणामेव तावदाधिपत्यँस्वाराज्यं पर्येता ॥ ४ ॥
॥ अष्टमः खण्डः ॥
अथ यत्तृतीयममृतं तदादित्या उपजीवन्ति वरुणेन मुखेन न वै देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यन्ति ॥ १ ॥
त एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति ॥ २ ॥
स य एतदेवममृतं वेदादित्यानामेवैको भूत्वा वरुणेनैव मुखेनैतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यति स एतदेव रूपमभिसंविशत्येतस्माद्रूपादुदेति ॥ ३ ॥
स यावदादित्यो दक्षिणत उदेतोत्तरतोऽस्तमेता द्विस्तावत्पश्चादुदेता पुरस्तादस्तमेतादित्यानामेव तावदाधिपत्यँस्वाराज्यं पर्येता ॥ ४ ॥
॥ नवमः खण्डः ॥
अथ यच्चतुर्थममृतं तन्मरुत उपजीवन्ति सोमेन मुखेन न वै देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यन्ति ॥ १ ॥
त एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति ॥ २ ॥
स य एतदेवममृतं वेद मरुतामेवैको भूत्वा सोमेनैव मुखेनैतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यति स एतदेव रूपमभिसंविशत्येतस्माद्रूपादुदेति ॥ ३ ॥
स यावदादित्यः पश्चादुदेता पुरस्तादस्तमेता द्विस्तावदुत्तरत उदेता दक्षिणतोऽस्तमेता मरुतामेव तावदाधिपत्य्ँस्वाराज्यं पर्येता ॥ ४ ॥
॥ दशमः खण्डः ॥
अथ यत्पञ्चमममृतं तत्साध्या उपजीवन्ति ब्रह्मणा मुखेन न वै देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यन्ति ॥ १ ॥
त एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति ॥ २ ॥
स य एतदेवममृतं वेद साध्यानामेवैको भूत्वा ब्रह्मणैव मुखेनैतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यति स एतदेव रूपमभिसंविशत्येतस्माद्रूपादुदेति ॥ ३ ॥
स यावदादित्य उत्तरत उदेता दक्षिणतोऽस्तमेता द्विस्तावदूर्ध्वमुदेतार्वागस्तमेता साध्यानामेव तावदाधिपत्यँस्वाराज्यं पर्येता ॥ ४ ॥
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তৃতীয় অধ্যায় 
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ষষ্ঠ খন্ড
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প্রথম মধুকোষের যাহাই নির্যাস ,
তাহামধ্যে বসুগণ আর অগ্নিদেবের বাস ||
অগ্নি শীর্ষে ধরি বাসুগন এতেই হয়ে তৃপ্ত ,
ইহমধ্যে গমন আবার পুনরায় আবির্ভূত ||
না করেন ভোজন তাঁরা না করেন পান ,
বিষ্ণু রে হেরিয়া তাঁরা পরমতৃপ্ত হন ||
এ নির্যাসে জানেন যাঁরা তাঁরাও হয়ে তৃপ্ত ,
বাসুসম আধিপত্যে অগ্নি শীর্ষে ধরি পরম পরিতৃপ্ত ||
যেতবধি সূর্যের পূবে উদয় পশ্চিমে অস্ত হয় ,
এ  লোকে তাঁদের সাম্রাজ্য হয় যে নিশ্চয় ||

সপ্তম খন্ড
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দ্বিতীয় নির্যাসে হয় রুদ্রগনের বাস ,
ইন্দ্রেরে শীর্ষে ধরি এ অমৃতে নিবাস ||
তৃপ্তিতে ইহাতে বিলীন আবার পুনরাবির্ভাব ও তৃপ্তিতে ,
বিনা পানাহারে পরিতৃপ্ত কেবলি দৃষ্টিতে ||
যিনি জানেন এ অমৃতে তিনি রুদ্রসম হন ,
ইন্দ্ররে মস্তকে ধরি সম তাঁরও ধাম ||
শ্বেতরশ্মিতে বিলীন হোওয়া তার সন্তুষ্টিতে ,
আবার পুনরাবির্ভাবও তাঁর হয় একই তৃপ্তিতে ||
যতকাল সূর্যের উদয় পূবে আর অস্ত পশ্চিমে ,
দ্বিগুন সেই উদয়অস্তের যা হয় উত্তর - দক্ষিনে ||
ততকাল আধিপত্য তাঁর প্রাপ্ত রুদ্রসম ,
রিক ও চতুর্বেদএর পতি তিনি যাহা অমৃতসম ||

অষ্টম খন্ড
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তৃতীয় নির্যাসে বাস আদিত্যগণ আর বরুণে ,
বরুনদেবে মস্তকে ধরি আদিত্যগণ তাঁরে প্রভু মেনে ||
কালিমাবর্ণ দক্ষিনোদয় আর উত্তরাঅস্তে ,
দর্শনেই তৃপ্ত আদিত্যআদি বরুন সমস্তে ||
যতকাল দক্ষিনে উদয় আর উত্তরে অস্ত হয় ,
এর জ্ঞাতার ও বাস সেই একই অমৃতে হয় ||
পান আদিত্যসম বিক্রম আর তাঁদের রাজ্য ,
একাধিপত্যে দেব্সম হয় তাঁহার সাম্রাজ্য ||

নবম খন্ড
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চতুর্থ অমৃতমধ্যে মরুত্গনের বাস ,
সোমেরে মস্তকপরে ধরি তাঁহাদের নিবাস ,
ঘোর কালিমাবর্ণমধ্যে অন্তর /বাহির -
হন তাঁরা হয়ে তৃপ্ত দ্রষ্টব্য সন্তুষ্টির ||
এর জ্ঞাতা মরুত্সম হন অন্তরস্থ ,
যতকাল সূর্যের উদয় পশ্চিমে আর হয় পূবে অস্ত ||
মরুত্গন সম তিনি প্রবল পরাক্রমে ,,
রাজত্ব করেন এ ঘোর কালিখবর্ণ মরুত্ধামে ||

দশম খন্ড
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পঞ্চম নির্যাসে হয় সাধ্যাদিগের বাস ,
ব্রহ্মকে শীর্ষে ধরি যাঁহাদের নিবাস ||
যথা উত্তরে উদিত হয়ে সূর্য দক্ষিনে যান অস্ত ,
সে লোক সে সময়কালে তাঁহাদের -ই সমস্ত ||
তৃপ্ত তাঁরা এ অমৃতে তাঁদের মুক্ত গমনাগমন ,
পানভোজন নয় - তৃপ্ত তাঁরা করে অবলোকন ||
এ অমৃতে জ্ঞাত যিনি তিনি হন সাধ্যা- সম ,,
রাজত্ব তাঁর এ পরমধামে হইয়া তৎ- সম ||

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Part Three
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Chapter VI :
[Meditation on the Vasus]
*On the first of these nectars (i.e. the red form ) the Vasus live, with Agni (fire) at their head. Indeed, the gods do not eat or drink. They are satisfied by merely looking at the nectar.
*They enter into this very form (red colour) and emerge (rise up) from this colour.
*He who thus knows this nectar becomes one of the Vasus, with Agni (fire) at their head, as leader ; he is satisfied by merely looking at the nectar. He retires into that red colour and again rises up from that colour.
*As long as the sun rises in the east and sets in the west, so long does he, like the Vasus, enjoy rulership and sovereignty of this heavenly world.
Chapter VII :[ Meditation on the Rudras]
*On the second of these nectars (i.e. the white form ) the Rudras live, with Indra (as their leader) at their head. Indeed, the gods do not eat or drink. They are satisfied by merely looking at the nectar.
*They enter( retire ) into that white colour and emerge out of  (rise up from ) this colour.
*He who thus knows this nectar becomes one of the Rudras, with Indra (as the leader) at their head; he is satisfied by merely looking at the nectar. He retires into that white colour and again rises up from that colour.
*As long as the sun rises in the east and sets in the west, twice as long does it rise in the south and set in the north and just so long does he, like the Rudras, enjoy rulership and sovereignty.
Chapter VIII : [ Meditation on the Adityas]
*On the third of these nectars the Adityas live, with Varuna at their head. Truly, the gods do not eat or drink. They are satisfied by merely looking at the nectar.
*They retire into that dark colour and rise up from that colour.
*He who thus knows this nectar becomes one of the Adityas, with Varuna at their head; he is satisfied by merely looking at the nectar. He returns into that dark colour and again rises up from that colour.
*As long as the sun rises in the south and sets in the north, twice as long does it rise in the west and set in the east and just so long does he, like the Adityas, enjoy rulership and sovereignty.
Chapter IX :[ Meditation on the Maruts]
*On the fourth of these nectars the Maruts live, with Soma at their head. Truly, the gods do not eat or drink. They are satisfied by merely looking at the nectar.
*They retire into that extremely dark colour and rise up from that colour.
*He who thus knows this nectar becomes one of the Maruts, with Soma at their head; he is satisfied by merely looking at the nectar. He retires into that extremely dark colour and again rises up from that colour.
*As long as the sun rises in the west and sets in the east, twice as long does it rise in the north and set in the south and just so long does he, like the Maruts, enjoy rulership and sovereignty.
Chapter X : [ Meditation on the Sadhyas]
*On the fifth of these nectars the Sadhyas live, with Brahma at their head. Truly, the gods do not eat or drink. They are satisfied by merely looking at the nectar.
*Thy retire into that form and rise up from that form.
*He who knows this nectar becomes one of the Sadhyas, with Brahma at their head; he is satisfied by merely looking at the nectar. He retires into that form and again rises up from that form.
*As long as the sun rises in the north and sets in the south, twice as long does it rise above and set below and just so long does he, like the Sadhyas, enjoy rulership and sovereignty.
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